Sunday, December 21, 2014

राजस्थानी कविता-“क्यूँ”


सगळा जाणै
करै जको ई भरै
बै भरण लाग रेया है
फैर भी...
बै करण लाग रेया है

-हरीश हैरी

Wednesday, December 17, 2014

कविता-“अखण्ड अवधूत सूरज"


अखण्ड अवधूत सूरज
अपनी ही धुन में
सदियों से था
तपस्या में रत.
खूब सज-संवर कर आई
धरती अप्सरा
इर्द-गिर्द घूमती रही
मगर कर नहीं पाई
तपस्या भंग !

-हरीश हैरी

कविता-“दिवाना चाँद"


दिवाना चाँद
सब कुछ भूलकर
दिन-रात
चक्कर काटता रहा
धरती के इर्द-गिर्द.
बेखबर धरती
सूरज के अगल-बगल
घूमती नज़र आई.
तेरी-मेरी प्रेम कहानी भी
चाँद-धरती और सूरज जैसी
जो चली आ रही है सदियों से
बिना रुके बिना थमे.
न चाँद को धरती मिली
और न धरती को सूरज.
-हरीश हैरी

राजस्थानी कविता-"धरम भैन"


रास्तै
धरम भैन बणाई
उझङ जग्यां सूं
मटकती निकळ'र
राखङी बांधण आई
पगडांडी बाई।